हिंदी की पाठशाला : एक परिचय

* * * * * * * * * * * II अभियान जबलपुर की प्रस्तुति : हिंदी की पाठशाला II * * * * * * * * * * * एक परिचय : अभियान जबलपुर २० अगस्त १९९५ को सनातन सलिला नर्मदा तट स्थित संस्कारधानी जबलपुर में स्थापित की गयी स्वसंसाधनों से संचालित एक अशासकीय साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संस्था है. उच्च शिक्षा हेतु प्रोत्साहन, पर्यावरण सुधार, पौधारोपण, जल स्रोत संरक्षण, वर्षा जल संचयन, नागरिक / उपभोक्ता अधिकार संरक्षण, दिव्य नर्मदा अलंकरण के माध्यम से देश के विविध प्रान्तों में श्रेष्ठ साहित्य के सृजन, प्रकाशन तथा साहित्यकारों के सम्मान, दहेज़ निषेध, आदर्श मितव्ययी अन्तर्जातीय सामूहिक विवाह, अंध श्रृद्धा उन्मूलन, आपदा प्रबंधन, पुस्तक मेले के माध्यम से पुस्तक संस्कृति के प्रसार आदि क्षेत्रों में महत कार्य संपादन तथा पहचान स्थापित कर संस्था का नवीनतम अभियान अंतर्जाल पर चिट्ठाकारी के प्रशिक्षण व प्रसार के समान्तर हिन्दी के सरलीकरण, विकास, मानक रूप निर्धारण, विविध सृजन विधाओं में सृजन हेतु मार्गदर्शन, समकालिक आवश्यकतानुसार शब्दकोष निर्माण, श्रेष्ठ साहित्य सृजन-प्रकाशन, सृजनकारों के सम्मान आदि के लिए अंतर्जाल पर सतत प्रयास करना है. दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम, हिंदी की पाठशाला आदि अनेक चिट्ठे इस दिशा के विविध कदम हैं. विश्वैक नीडं तथा वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्श को आत्मसात कर अभियान इन उद्देश्यों से सहमत हर व्यक्ति से सहयोग के आदान-प्रदान हेतु तत्पर है.

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

रवींद्र खरे 'अकेला' रचित 'मेरी लघुकथाओं का पहला नाबाद शतक' विमोचित :

कृति विमोचन:
रवींद्र खरे 'अकेला' रचित 'मेरी लघुकथाओं का पहला नाबाद शतक' विमोचित :




भोपाल . मध्यप्रदेश के राज्यपाल महामहिम श्री रामेश्वर ठाकुर के करकमलों से दिव्यनर्मदा परिवार के अभिन्न अंग श्री रविन्द्र खरे 'अकेला' के नव प्रकाशित लघुकथा संग्रह 'मेरी लघुकथाओं का पहला नाबाद शतक' का विमोचन पूर्व सांसद श्री कैलाशनारायण सारंग, अध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा की विशेष उपस्थिति में संपन्न हुआ. श्री अकेला को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें. 

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

सामयिक लेख: शब्दों की सामर्थ्य --संजीव 'सलिल'


सामयिक लेख:
 
                   शब्दों की सामर्थ्य 
 
                            संजीव 'सलिल'
                                     *
            पिछले कुछ दशकों से यथार्थवाद के नाम पर साहित्य में अपशब्दों के खुल्लम खुल्ला प्रयोग का चलन बढ़ा है. इसके पीछे दिये जाने वाले तर्क २ हैं: प्रथम यह कि यथार्थवाद अर्थात रचना के पात्र व्यवहार में जो भाषा प्रयोग करते हैं उसका यथावत प्रयोग अर्थात अपशब्द, गाली, समाज में द्वेष फ़ैलानेवाले कुतर्क, किसी संवर्ग विशेष की भावनाएँ आहत करनेवाले संवाद अथवा भारतीय संविधान और राष्ट्रीयता के विरुद्ध दिए गाये कुतर्क अजिसे के तैसे प्रस्तुत कर दिए जाएँ और दूसरा यह कि समाज में इतनी अधिक गंदगी आचरण में है कि उसके आगे इन शब्दों की बिसात कुछ नहीं. सरसरी तौर से सही दिखते इन दोनों कुतर्कों का खोखलापन चिन्तन करते ही सामने आ जाता है.


              हम जानते हैं कि विवाह के पश्चात् नव दम्पति वे बेटी-दामाद हों या बेटा-बहू शयन कक्ष में क्या करनेवाले हैं? यह यथार्थ है पर क्या इस यथार्थ का मंचन हम मंडप में देखना चाहेंगे? कदापि नहीं, इसलिए नहीं कि हम अनजान या असत्यप्रेमी पाखंडी हैं, अथवा नव दम्पति कोई अनैतिक कार्य करेने जा रहे होते हैं अपितु इसलिए कि यह मानवजनित शिष्ट, सभ्यता और संस्कारों का तकाजा है. नव दम्पति की एक मधुर चितवन ही उनके अनुराग को व्यक्त कर देती है. इसी तरह रचना के पत्रों की अशिक्षा, देहातीपन अथवा अपशब्दों के प्रयोग की आदत का संकेत बिना अपशब्दों का प्रयोग किए भी किया जा सकता है. रचनाकार की शब्द सामर्थ्य तभी ज्ञात होती है जब वह अनकहनी को बिना कहे ही सब कुछ कह जाता है, जिनमें यह सामर्थ्य नहीं होती वे रचनाकार अपशब्दों का प्रयोग करने के बाद भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जो अपेक्षित है.

              दूसरा तर्क कि समाज में शब्दों से अधिक गन्दगी है, भी इनके प्रयोग का सही आधार नहीं है. साहित्य का सृजन करने के पीछे साहित्यकार का लक्ष्य क्या है? सबका हित समाहित करनेवाला सृजन ही साहित्य है. समाज में व्याप्त गन्दगी और अराजकता से क्या सबका हित, सार्वजानिक हित सम्पादित होता है? यदि होता तो उसे गन्दा नहीं माना जाता. यदि नहीं होता तो उसकी आंशिक आवृत्ति भी कैसे सही कही जा सकती है? गन्दगी का वर्णन करने पर उसे प्रोत्साहन मिलता है. गन्दगी कितनी भी अधिक हो उसे और अधिक बढ़ाना तो साहित्य का लक्ष्य नहीं हो सकता किन्तु उस गन्दगी को इंगित मात्र से व्यक्त कर उसके दुष्प्रभावों और निदानों की विस्तृत चर्चा कर गन्दगी के उन्मूलन की दिशा में एक एकदम रखा जा सकता है.

               समाचार पत्र रोज भ्रष्टाचार के समाचार छापते हैं... पर वह घटता नहीं, बढ़ता जाता है. गन्दगी, वीभत्सता, अश्लीलता की जितनी अधिक चर्चा करेंगे उतने अधिक लोग उसकी ओर आकृष्ट होंगे. इन प्रवृत्तियों की अनदेखी और अनसुनी करने से ये अपनी मौत मर जाती हैं. सतर्क करने के लिये संकेत मात्र पर्याप्त है.

               तुलसी ने असुरों और सुरों के भोग-विलास का वर्णन किया है किन्तु उसमें अश्लीलता नहीं है. रहीम, कबीर, नानक, खुसरो अर्थात हर सामर्थ्यवान और समयजयी रचनाकार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता हैं और पाठक, चिन्तक, समलोचालक उसके लिखे के अर्थ बूझते रह जाते हैं. समस्त टीका शास्त्र और समीक्षा शास्त्र रचनाकार की शब्द सामर्थ्य पर ही टिका है.

              अपशब्दों के प्रयोग के पीछे सस्ती और तात्कालिक लोकप्रियता पाने या चर्चित होने की मानसिकता भी होती है. रचनाकार को समझना चाहिए कि साथी चर्चा किसी को साहित्य में अजर-अमर नहीं बनाती. आदि काल से लोक जीवन में राई, कबीर, गारी और उर्दू में हज़ल कहने का प्रचलन रहा है किन्तु इन्हें लिखनेवाले कभी समादृत नहीं हुए. ऐसा साहित्य कभी सार्वजानिक प्रतिष्ठा नहीं पा सका. ऐसा साहित्य चोरी-चोरी भले ही लिखा और पढ़ा गया हो, चंद लोगों ने भले ही अपनी कुण्ठा अथवा कुत्सित मनोवृत्ति को संतुष्ट अनुभव किया हो किन्तु वे भी सार्वजनिक तौर पर इससे बचते ही रहे.

              प्रश्न यह है कि साहित्य रचा ही क्यों जाता है? साहित्य केवल मनुष्य ही क्यों रचता है?

              केवल मनुष्य ही साहित्य रचता है चूँकि ध्वनियों को अंकित करने की विधा (लिपि) मनुष्य मात्रको  ही ज्ञात है. यदि यही एकमात्र कारण होता तो शायद साहित्य की वह महत्ता न होती जो आज है. ध्वन्यांकन के अतिरिक्त साहित्य की महत्ता श्रेष्ठतम मानव मूल्यों को अभिव्यक्त करने, सुरक्षित रखने और संप्रेषित करने की शक्ति के कारण है. अशालीन साहित्य श्रेष्ठतम मूल्यों को नहीं निकृष्टतम मूल्यों को व्यक्त करता है, इसलिए वह सदा त्याज्य माना गया और माना जाता रहेगा.

               साहित्य सृजन का कार्य अक्षर और शब्द की आराधना करने की तरह है. माँ, मातृभूमि, गौ माता और धरती माता की तरह भाषा भी मनुष्य की माँ है. चित्रकार हुसैन ने सरस्वती और भारत माता की निर्वस्त्र चित्र बनाकर यथार्थ ही अंकित किया पर उसे समाज का तिरस्कार ही झेलना पड़ा. कोई भी अपनी माँ को निर्वस्त्र देखना नहीं चाहता, फिर भाषा जननी को अश्लीलता से आप्लावित करना समझ से परे है.

               सारतः शब्द सामर्थ्य की कसौटी बिना कहे भी कह जाने की वह सामर्थ्य है जो अश्लील को भी श्लील बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति का साधन तो बनती है, अश्लीलता का वर्णन किए बिना ही उसके त्याज्य होने की प्रतीति भी करा देती है. इसी प्रकार यह सामर्थ्य श्रेष्ट की भी अनुभूति कराकर उसको आचरण में उतारने की प्रेरणा देती है. साहित्यकार को अभिव्यक्ति के लिये शब्द-सामर्थ्य की साधना कर स्वयं को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए न कि स्थूल शब्दों का भोंडा प्रयोग कर साधना से बचने का प्रयास करना चाहिए.
 
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शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन ----- संजीव वर्मा 'सलिल'

पाठ १
भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन
----- संजीव वर्मा 'सलिल'
औचित्य :

भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है. हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं. भाषा सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी होती है. उसमें से कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं.

'हिन्दी सलिला' वर्त्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर हिन्दी का शुद्ध रूप जानने की दिशा में एक कदम है. यहाँ न कोई सिखानेवाला है, न कोई सीखनेवाला. हम सब जितना जानते हैं उससे कुछ अधिक जान सकें मात्र यह उद्देश्य है. व्यवस्थित विधि से आगे बढ़ने की दृष्टि से संचालक कुछ सामग्री प्रस्तुत करेंगे. उसमें कुछ कमी या त्रुटि हो तो आप टिप्पणी कर न केवल अवगत कराएँ अपितु शेष और सही सामग्री उपलब्ध हो तो भेजें. मतान्तर होने पर संचालक का प्रयास होगा कि मानकों पर खरी , शुद्ध भाषा सामंजस्य, समन्वय तथा सहमति पा सके. 
हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक/स्थानीय भाषाओँ और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं. इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है किन्तु हिन्दी को विश्व भाषा बनने के लिये इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना ही होगा. अनेक क्षेत्रों में हिन्दी की मानक शब्दावली है. जहाँ नहीं है वहाँ क्रमशः आकार ले रही है. हम भाषिक तत्वों के साथ साहित्यिक विधाओं तथा शब्द क्षमता विस्तार की दृष्टि से भी सामग्री चयन करेंगे. आपकी रूचि होगी तो प्रश्न या गृहकार्य के माध्यम से भी आपकी सहभागिता हो सकती है.

जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है वह कही गयी बात का आशय संप्रेषित करता है किन्तु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता. ज्ञान-विज्ञानं में भाषा का उपयोग तभी संभव है जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ की प्रतीति हो. इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छाशक्ति की कमी तथा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है.

इस स्तम्भ का श्री गणेश करते हुए हमारा प्रयास है कि हम एक साथ मिलकर सबसे पहले कुछ मूल बातों को जानें. भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन जैसी मूल अवधारणाओं को समझने का प्रयास करें.

भाषा :

अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
भाषा-सलिला निरंतर, करे अनाहद जाप.


भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक), तूलिका के माध्यम से अंकित, लेखनी के द्वारा लिखित तथा आजकल टंकण यंत्र या संगणक द्वारा टंकित होता है.

निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.


व्याकरण ( ग्रामर ) -

व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.

वर्ण शब्द संग वाक्य का, 
कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', 

भाषा पर अधिकार.


वर्ण / अक्षर :

हिंदी में वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.

स्वर ( वोवेल्स ) :

स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है जिसका अधिक क्षरण, विभाजन या ह्रास नहीं हो सकता. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ, .

स्वर के दो प्रकार:

१. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा
२. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.


व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार हैं.

१. स्पर्श व्यंजन (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म).
२. अन्तस्थ व्यंजन (य वर्ग - य, र, ल, व्, श).
३. ऊष्म व्यंजन ( श, ष, स ह) तथा
४. संयुक्त व्यंजन ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.


शब्द :

अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.


अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. शब्द भाषा का मूल तत्व है. जिस भाषा में जितने अधिक शब्द हों वह उतनी ही अधिक समृद्ध कहलाती है तथा वह मानवीय अनुभूतियों और ज्ञान-विज्ञानं के तथ्यों का वर्णन इस तरह करने में समरथ होति है कि कहने-लिखनेवाले की बात का बिलकुल वही अर्थ सुनने-पढ़नेवाला ग्रहण करे. ऐसा न हो तो अर्थ का अनर्थ होने की पूरी-पूरी संभावना है. किसी भाषा में शब्दों का भण्डारण कई तरीकों से होता है.

१. मूल शब्द:
भाषा के लगातार प्रयोग में आने से समय के विकसित होते गए ऐसे शब्दों का निर्माण जन जीवन, लोक संस्कृति, परिस्थितियों, परिवेश और प्रकृति के अनुसार होता है. विश्व के विविध अंचलों में उपलब्ध भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन शैलियों, खान-पान की विविधताओं, लोकाचारों,धर्मों तथा विज्ञानं के विकास के साथ अपने आप होता जाता है.

२. विकसित शब्द:
आवश्यकता अविष्कार की जननी है. लगातार बदलती परिस्थितियों, परिवेश, सामाजिक वातावरण, वैज्ञानिक प्रगति आदि के कारण जन सामान्य अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिये नए-नए शब्दों का प्रयोग करता है. इस तरह विकसित शब्द भाषा को संपन्न बनाते हैं. व्यापार-व्यवसाय में उपभोक्ता के साथ धोखा होने पर उन्हें विधि सम्मत संरक्षण देने के लिये कानून बना तो अनेक नए शब्द सामने आये.

३. आयातित शब्द :
किन्हीं भौगोलिक, राजनैतिक या सामाजिक कारणों से जब किसी एक भाषा बोलनेवाले समुदाय को अन्य भाषा बोलने वाले समुदाय से घुलना-मिलन पड़ता है तो एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्द भी मिलते जाते हैं. ऐसी स्थिति में कुछ शब्द आपने मूल रूप में प्रचलित रहे आते हैं तथा मूल भाषा में अन्य भषा के शब्द यथावत (जैसे के तैसे) अपना लिये जाते हैं. हिन्दी ने पूर्व प्रचलित भाषाओँ संस्कृत, अपभ्रंश, पाली, प्राकृत तथा नया भाषाओं-बोलिओं से बहुत से शब्द ग्रहण किए हैं. आज हम इन शब्दों को हिन्दी का ही मानते हैं, वे किस भाषा से आये नहीं जानते.

हिन्दी में आयातित शब्दों का उपयोग ४ तरह से हुआ है.

१. मूल भाषा में प्रयुक्त शब्द के उच्चारण को जैसे का तैसा उसी अर्थ में देवनागरी लिपि में लिखा जाए ताकि पढ़ते/बोले जाते समय हिन्दी भाषी तथा अन्य भाषा भाषी उस शब्द को समान अर्थ में समझ सकें. जैसे अंग्रेजी का शब्द स्टेशन, यहाँ अंगरेजी में स्टेशन लिखते समय उपयोग हुए अंगरेजी अक्षरों को पूरी तरह भुला दिया गया है.

२. मूल शब्द के उच्चारण में प्रयुक्त ध्वनि हिन्दी में न हो अथवा अत्यंत क्लिष्ट या सुविधाजनक हो तो उसे हिन्दी की प्रकृति के अनुसार परिवर्तित कर लिया जाए. जैसे अंगरेजी के शब्द हॉस्पिटल को सुविधानुसार बदलकर अस्पताल कर लिया गया है. .

३. जिन शब्दों के अर्थ को व्यक्त करने के लिये हिंदी में हिन्दी में समुचित पर्यायवाची शब्द हैं या बनाये जा सकते हैं वहाँ ऐसे नए शब्द ही लिये जाएँ. जैसे: बस स्टैंड के स्थान पर बस अड्डा, रोड के स्थान पर सड़क या मार्ग. यह भी कि जिन शब्दों को गलत अर्थों में प्रयोग किया जा रहा है उनके सही अर्थ स्पष्ट कर सम्मिलित किये जाएँ ताकि भ्रम का निवारण हो. जैसे: प्लान्टेशन के लिये वृक्षारोपण के स्थान पर पौधारोपण, ट्रेन के लिये रेलगाड़ी, रेल के लिये पटरी.

४. नए शब्द: ज्ञान-विज्ञान की प्रगति, अन्य भाषा-भाषियों से मेल-जोल, परिस्थितियों में बदलाव के कारण हिन्दी में कुछ सर्वथा नए शब्दों का प्रयोग होना अनिवार्य है. इन्हें बिना हिचक अपनाया जाना चाहिए. जैसे सैटेलाईट, मिसाइल, सीमेंट आदि.

हिंदीभाषी क्षेत्रों में पूर्व में विविध भाषाएँ / बोलियाँ प्रचलित रहने के कारण उच्चारण, क्रिया रूपों, कारकों, लिंग, वाचन आदि में भिन्नता है. अब इन अभी क्षेत्रों में एक सी भाष एके वोक्स के लिये बोलनेवालों को अपनी आदत में कुछ परिवर्तन करना होगा ताकि अहिन्दीभाषियों को पूरे हिन्दीभाषी क्षेत्र में एक सी भाषा समझने में सरलता हो. अगले सत्र में हम कुछ अन्य बिन्दुओं पर बात करेंगे.
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दोहा का रंग : हिन्दी के संग संजीव 'सलिल'

दोहा का रंग : हिन्दी के संग 

संजीव 'सलिल'
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हिन्दी सजती भाल पर, भारत माँ के भव्य.

गौरवगाथा राष्ट्र की, जनवाणी यह दिव्य..

हिन्दी-बिंदी सुशोभित, शारद माँ का भाल.
हिन्दी से ही हिंद का, है भविष्य खुशहाल..

अक्षर-अक्षर पुष्प है, शब्द-वाक्य गलहार.
गद्य कथा, पद आरती, सृजन मातु-मनुहार..

हिन्दी सारे जगत को, है प्रभु का वरदान.
सब जग पढ़-लिख-बोलकर, हो परिवार-समान..

संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की आपा प्रखर, हिन्दी-सलिल विशिष्ट..

हिन्दी आता माढ़िये, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल..

ईंट बने सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिन्दी हृदय प्रणम्य..

प्राकृत औ' अपभ्रंश की, थाती रखी सहेज.
सुरवाणी की विरासत, हिन्दी में है तेज..

लश्कर में कर फारसी-अरबी से गठजोड़.
रूप-राशि उर्दू नहीं, गैर- न कोई होड़..

सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
संगम शब्दों का बने, तीरथ पूत अनूप..

भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबका सबसे स्नेह ही, शब्द-साधना-ध्येय..

उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ जल-धार शत, शुद्ध रखें सविवेक..

भाषा बोलें कोई भी, किन्तु बोलिए शुद्ध.
मन से मन तक जा सके, बनकर दूत प्रबुद्ध..

ज्ञान-गगन में सोहाती, हिन्दी बनकर सूर्य.
जन-हित के संघर्ष में, है रण-भेरी-तूर्य..

हिन्दी सबके मन बसी, राजा-प्रजा-फ़कीर.
मिटा न, अपनी खींचती, सबसे बड़ी लकीर..

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